सुप्रीम कोर्ट ने तीन लोगों की हत्या के दोषी को पाया नाबालिग, 25 साल जेल के बाद आया रिहाई का आदेश
08-Jan-2025 11:15 PM 8605
नयी दिल्ली, 08 जनवरी (संवाददाता) उच्चतम न्यायालय ने एक सेवानिवृत्त कर्नल, उनके बेटे और बहन की हत्या के दोषी को 25 साल की कैद के बाद बुधवार को यह कहते हुए रिहाई का आदेश दिया कि घटना के समय वह 14 साल का किशोर था। न्यायमूर्ति एम एम सुंदरेश और न्यायमूर्ति अरविंद कुमार की पीठ ने उसकी दोषसिद्धि को बरकरार रखा, लेकिन किशोर न्याय (बच्चों की देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015 के तहत निर्धारित सजा की ऊपरी सीमा से अधिक होने के कारण उसकी सजा को रद्द कर दिया। पीठ कहा,“हर स्तर पर अदालतों ने (इस मामले में) या तो दस्तावेजों की अनदेखी करके या अनदेखी करके अन्याय किया है।” पीठ ने अपने फैसले में दोषी की 60 साल उम्र तक की सजा रद्द कर रिहाई का आदेश देते हुए कहा कि न्यायालय द्वारा की गई गलती किसी व्यक्ति के उचित लाभ के आड़े नहीं आ सकती। गौरतलब है कि एक ही परिवार के तीन लोगों की हत्या का यह सनसनीखेज घटना उत्तराखंड के देहरादून जिले का वर्ष 1994 की है। पीठ ने अपने आदेश में आगे कहा,“न्याय सत्य की अभिव्यक्ति के अलावा और कुछ नहीं है। यह सत्य है जो हर अन्य कार्य से परे है। न्यायालय का प्राथमिक कर्तव्य तथ्यों के अंदर छिपे सत्य को उजागर करने के लिए एकनिष्ठ प्रयास करना है। इस प्रकार न्यायालय सत्य की खोज करने वाला इंजन है, जिसके उपकरण प्रक्रियात्मक और मूल कानून हैं।” पीठ ने कहा कि अपीलकर्ता ने अशिक्षित होने के बावजूद, निचली अदालत से लेकर इस शीर्ष अदालत के समक्ष क्यूरेटिव याचिका के निष्कर्ष तक किसी न किसी तरह से यह दलील ( नाबालिग होने की) दी। इससे पहले, अपीलकर्ता को मृत्युदंड की सजा सुनाई गई थी। उसकी समीक्षा और क्यूरेटिव याचिका को भी सर्वोच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया था। हालांकि, आठ मई, 2012 को जारी राष्ट्रपति के आदेश के तहत उसके मृत्युदंड को इस शर्त पर आजीवन कारावास में बदल दिया गया था कि उसे 60 वर्ष की आयु प्राप्त होने तक रिहा नहीं किया जाएगा। अपीलकर्ता ने 2019 में राष्ट्रपति के आदेश को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय के समक्ष एक रिट याचिका दायर की और 2015 के किशोर न्याय अधिनियम की धारा 9(2) के आधार पर एक और राहत की गुहार लगाई। उच्च न्यायालय ने उसकी याचिका को यह मानते हुए खारिज कर दिया कि संविधान के अनुच्छेद 72 के तहत पारित कार्यकारी आदेश पर न्यायिक समीक्षा की शक्ति सीमित है और अपीलकर्ता के खिलाफ कार्यवाही अंतिम हो गई है। शीर्ष न्यायालय के समक्ष उसके वकील वरिष्ठ अधिवक्ता एस मुरलीधर ने तर्क दिया कि हर चरण में उठाई गई किशोरावस्था की दलील पर फैसला नहीं सुनाया गया है, जो कि उसके साथ (अपीलकर्ता) घोर अन्याय है। उसे पहले के एकांत कारावास सहित अनुचित रूप से कारावास में रखा गया है, जो स्पष्ट रूप से अस्थिर और अवैध है। अपीलकर्ता की ओर से जलपाईगुड़ी से प्राप्त स्कूल प्रमाण पत्र का हवाला देते हुए वकील ने जेल में बिताए गए उसके प्रारंभिक वर्षों के नुकसान के लिए पर्याप्त मुआवजे के साथ उसकी तत्काल रिहाई की मांग की थी। अतिरिक्त सॉलिसिटर जनरल के एम नटराज और वंशजा शुक्ला के नेतृत्व में राज्य के वकील ने कहा कि यह एक ऐसे मुद्दे को फिर से खोलने और फिर से सुनने का प्रयास है जो अंतिम रूप लिया जा चुका है। हालांकि, अदालत ने कहा कि कानून के तहत परिकल्पित प्रक्रियात्मक आदेश का भी निचली अदालत और उच्च न्यायालय द्वारा पालन नहीं किया गया, क्योंकि किशोर होने की दलील किसी भी स्तर पर और कार्यवाही के समापन के बाद भी उठाई जा सकती है। पीठ ने कहा,“हम केवल यह कहेंगे कि यह एक ऐसा मामला है, जहां अपीलकर्ता अदालतों द्वारा की गई गलती के कारण पीड़ित है। हमें सूचित किया गया है कि जेल में उसका आचरण सामान्य है। कोई प्रतिकूल रिपोर्ट नहीं है। उसने समाज में फिर से घुलने-मिलने का अवसर खो दिया। उसने जो समय खोया है, वह कभी वापस नहीं आ सकता।” शीर्ष अदालत यह भी ने स्पष्ट किया कि उसका आदेश राष्ट्रपति के आदेश की समीक्षा नहीं है, बल्कि यह 2015 के अधिनियम के प्रावधानों का लाभ किसी योग्य व्यक्ति को देने का मामला है। न्यायालय ने उत्तराखंड राज्य विधिक सेवा प्राधिकरण को राज्य या केंद्र सरकार की किसी भी कल्याणकारी योजना की पहचान करने, उसके पुनर्वास और रिहाई के बाद समाज में उसके सुचारू रूप से पुनः एकीकरण में सक्रिय भूमिका निभाने का निर्देश दिया, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत गारंटीकृत आजीविका, आश्रय और भरण-पोषण के उसके अधिकार पर विशेष जोर दिया गया। पीठ ने कहा,“उक्त संवैधानिक आदेश के मद्देनजर न्यायालय से अपेक्षा की जाती है कि वह बच्चे को अपराधी के रूप में नहीं, बल्कि पीड़ित के रूप में मानकर उसके माता-पिता की भूमिका निभाए, जिसे सुधार, पुनर्वास और समाज में पुनः एकीकरण के नजरिए से देखा जाए।...////...
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